नारी मन को मन समझ न पाया ,
है कैसी दुविधा यह कैसी माया ?
तू है सारे जग की जननी ,
तुझमे ही है विनाश की छाया ।
जिसने भी तुझ से हाथ मिलाया ,
कभी हाथ जलाया ,कभी हाथ गंवाया ।
जिसने भी तुझको शीश नवाया ,
कभी आशीष मिला ,कभी प्यार है पाया।
जिसने भी तुझको आँख दिखायी ,
रौद्र रूप काली को पाया ।
तू चलती फिरती मधुशाला ,
लेकिन दिल में क्यूं प्रतिशोध की ज्वाला ?
तेरे अंतर्मन में क्या है ?
उसको अब तक समझ न पाया ।
अब तू ही बता दे ,तू क्या है कौन है ?
देखती तू खूब ,लेकिन रहती क्यूं मौन है ?
सवाल पूंछता मैं मन में ,
आख़िर क्या है तेरे जेहन में ?
(यह कविता एम.ए.(प्राचीन इतिहास ) प्रथम वर्ष के दौरान लिखी )
9 comments:
wow, very special, i like it.
good one.
thats amazing story.
पहलुओं के पहलू हैं. बेहतर.
हा हा हा . शीर्षक पढ़कर मुझे लगा था की नारी की म्हणता का वर्णन होगा. पैर कोई बात नहीं अपना-अपना अनुभव है. सस्नेह.
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जिसने भी तुझ से हाथ मिलाया ,
कभी हाथ जलाया ,कभी हाथ गंवाया ।
अपना-अपना अनुभव!
बढि़या रचना, बधई.
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