Wednesday, October 8, 2008

ऐसा क्यूँ .....?

देखता हूँ हर दिन,कोई नया हादसा,
और होता है फिर कंही कुछ द्वंद सा।
रोज ही छप जाती है मन में
तस्वीर नयी कोई,
हंसती हैं उनमे कुछ, तो रोती हैं कोई।
पर मेरे दिल का आँगन बहुत छोटा,
काश! ये आसमान सा होता ।
नवजीवन मिलता यहाँ किसी को,
तो दम तोड़ देती है कोई ।
तस्वीर है उन मासूम चेहरों की,
जो अक्सर ही देखे जाते हैं।
हर पथ पर हर गली में ,
हर सुबह और शाम में
हर चौराहे और फुटपाथ पर,
बिखरे से मिल जाते हैं ।
क्या है इनकी कथा ?
क्या है इनकी व्यथा ?
शायद ही जान पाता है कोई ,
और उन्हें समझ पाता है कोई ,
लेकिन ऐसा क्यूँ ? ............
क्या वे अपने नही ? या ,
हम ही उनके नही ।
उत्तर के अन्वेषण में ,
इन संवादों के संप्रेषण में ,
टूटते हैं प्रश्न भी और
मिलते हैं जवाब भी ,पर
वो राह नही मिलती जो,
दिखाए नयी राह ,जो
सजाये उन टूटे सपनों को ,
अपना बनाए उनके अरमानों को ,
पर ऐसा क्यूँ ?.........
क्या कोई इनके उत्तर ढूंढ पायेगा ?
या फ़िर कोई चेहरा प्रश्न लिए ही ,
इतिहास के अनुत्तरित पन्नों में ,
दफ़न हो जायेगा हमेशा के लिए .......

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