Wednesday, October 8, 2008

ऐलान-ए-ज़ंग........

अभी तो ये ज़ंग का आगाज है,
तेरा खुदा भी आज नाराज है ,
नफरत की बुलंदी पर कोई टिक ना सका ,
कश्मीर मोहब्बत का वो साज है ।
भूल गए जिसे तुम ,
तेरा वो कल ,फ़िर आज है ,
हमारे दिलों में भी सुलगती आग है ।
कश्मीर हिमालय का सरताज है ,
और हमारी ही मोहब्बत का मोहताज है ।
चाँद और सितारे तेरे पास हैं ,
तो कश्मीर सा सूरज हमारे पास है ।
दूर से ही तू ,इससे रोशन रहेगा ,
इसको पाने की कोशिश में जल जायेगा ।
तुम करते हो नफरत
हम करते हैं मोहब्बत ।
तुम करते हो शहादत ,
समझ न पाये इसकी इबादत !
हम कहते हैं शान इसको
देते हैं सब जान अपनी ।
मर जाते हैं मिट जाते हैं ,
हो जाते हैं कुर्बान ।
तेरा खुदा - हमारा भगवान,
आज हम पर ही हैं मेहरबान ।
जिसको कहते तुम आजादी की ज़ंग ,
उसमे खून-खराबी का रंग ।
रंग जाओगे ख़ुद इसमे तुम
और उतर जायेगी जो चढी भंग ।
मुंह की खाए भूल गए तुम ,
हो जाए फ़िर ऐलान-ए-ज़ंग ।
( कारगिल युद्ध के समय लिखी गयी कविता )

No comments: