Friday, October 10, 2008

नारी मन.........


नारी मन को मन समझ न पाया ,
है कैसी दुविधा यह कैसी माया ?
तू है सारे जग की जननी ,
तुझमे ही है विनाश की छाया ।
जिसने भी तुझ से हाथ मिलाया ,
कभी हाथ जलाया ,कभी हाथ गंवाया ।
जिसने भी तुझको शीश नवाया ,
कभी आशीष मिला ,कभी प्यार है पाया।
जिसने भी तुझको आँख दिखायी ,
रौद्र रूप काली को पाया ।
तू चलती फिरती मधुशाला ,
लेकिन दिल में क्यूं प्रतिशोध की ज्वाला ?
तेरे अंतर्मन में क्या है ?
उसको अब तक समझ न पाया ।
अब तू ही बता दे ,तू क्या है कौन है ?
देखती तू खूब ,लेकिन रहती क्यूं मौन है ?
सवाल पूंछता मैं मन में ,
आख़िर क्या है तेरे जेहन में ?
(यह कविता एम.ए.(प्राचीन इतिहास ) प्रथम वर्ष के दौरान लिखी )

Thursday, October 9, 2008

जो ना कह सके......

जिन्दगी हमें बहुत कुछ देती है और बहुत कुछ छीन भी लेती है । लेकिन हम सब उस चीज को लेकर कितना परेशान रहते हैं जो हमसे छीन लिया गया । इस फेर में पड़कर हम उसको भी नजरअंदाज कर देते हैं जो अब भी हमारे पास है और जो हमारी हमेशा के लिए ना सही कुछ वक्त के लिए भी हो जाए तो हमारी दुनिया ही बदल जाए ।वैसे तो मनुष्य जीवन ही अपने आप में एक तोहफा है लेकिन और भी बहोत कुछ है जिनसे यह जीवन हमें प्यारा और खूबसूरत लगने लगता है ।हर एक का जीवन किसी न किसी से जरूर प्रभावित रहता है ऐसा ही एक दुनिया का नायाब तोहफा है "दोस्ती' ,जिसने मेरे जीवन के हर मोड़ पर एक अहम् रोल अदा किया है और मेरा विश्वास है कि यह आगे भी जारी रहेगा ............ ।दोस्ती..........कहने को एक छोटा सा लफ्ज ,लेकिन ना जाने कितनी अनमोल चीजों से भी सुंदर और कीमती है यह । अगर दो लफ्जों के इस शब्द को परिभाषित करने की कोशिश भी करें तो शायद दुनिया के शब्दभंडार भी कम पड़ जाएँ ।दोस्ती एक एहसास है जिसे वही महसूस कर सकता है जिसने इसको जिया है ,दोस्ती एक ऐसी खुशी है जो सारी खुशियों से भी बढ़कर है ,दोस्ती एक जरूरत है जो पूरी होने पर भी कम लगती है । दोस्ती एक दर्द है जो मिले तो अपना वजूद आजमाती है । दोस्ती हमारी आँख है जो हम पर हर वक्त नजर रखती है । दोस्ती में लोग धड़कनें भी दे दिया करते हैं। दोस्ती एक सफर है जो ताउम्र रहे तो मंजिलों की जरूरत ही ना पड़े । दोस्ती जान देती भी है और जान लेती भी है । दोस्ती अजनबी को भी अपना बना देती है । दोस्ती अनजाने में ही ना जाने क्या क्या दे जाती है । दोस्ती एक विश्वास है ,एक भरोसा है ,जो टूटे तो सारी खुशियाँ बिखरने सी लगती हैं । दोस्त अगर बिछडे तो आंसुओं का सैलाब आ जाता है ,दोस्त ना हों तो जिंदगी अधूरी सी लगती है कुछ भी अच्छा नही लगता ,कोई मौसम आए-जाए ,सब कुछ एक जैसा नीरस लगता है । दोस्ती एक जज्बात है जो इस रिश्ते की डोर को मजबूत बनाती है । दोस्ती दिल और दिमाग से नही चलती ,ये तो बस अपने ही अंदाज में चलती है ।किसी ने सच ही कहा है .......
ये मुमकिन है कि दिल के पास रहा कर अक्ल,
लेकिन कभी-कभी इसे तनहा भी छोड़ दिया कर।
इसका ना कोई निश्चित रास्ता है ना कोई निश्चित सफर ,बड़े ही टेढे - मेढे रास्ते हैं इसके ,और फ़िर दोस्ती की राह सीधी हो तो चलने का मजा ही कहाँ ?कहते भी हैं कि दोस्ती पर भरोसा हो तो जहन्नुम का सफर भी सुहाना लगे । किसी शायर या कवि कि इन पंक्तियों का मतलब भी साफ़ है कि जो भी फैसले हम दिल और दिमाग से लेते हैं वो अमूमन सही ही होते हैं मगर दूसरी पंक्ति में वह दोनों को अलग-अलग रखने की बात करता है ,शायद दोस्ती भी यही मांग करती है । दोस्ती के भी अपने -अपने दौर होते हैं ,अपनी एक उम्र होती है ,अपने अंदाज और अपने मायने होते हैं । बचपन की दोस्ती ,किशोरावस्था की दोस्ती ,प्रौढावस्था की दोस्ती और बुढापे की दोस्ती ,इन सब के साथ ही दोस्ती का एक दौर वह भी होता है जो आपके अपने करियर के साथ ही शुरू होती है ।यह दौर भी आपकी दोस्ती का एक अहम् हिस्सा होता है जिसमे शायद बाकी चारों दौर के दोस्त मिलें भी या ना भी ,लेकिन इसका सफर लंबा होता है । दोस्ती जाति-धर्म से परे है, इसकी अपनी कोई भाषा नही है ,रूप-रंग भी नही है, यह किसी देश-दुनिया की सीमाओं से भी परे है , यह किसी भाषा की मोहताज नही। वैसे दोस्ती को इतने कम शब्दों में कह पाना मुमकिन नही , लेकिन जिसके मिलने से चेहरे पर खुशी हो ,जिसके जाने से अधूरापन लगने लगे,मुश्किल हालात में जिसकी याद सताए , कोई सफलता मिलने पर जिसके साथ वो खुशी का पल बांटना चाहें, वही दोस्ती है । समाज में किसी व्यक्ति की एक ख़ास भूमिका होती है जिसे केवल वही निभा सकता है ,ठीक उसी प्रकार दोस्ती की भी हमारे जीवन में एक ख़ास भूमिका है जिसे केवल एक दोस्त ही निभा सकता है ।

Wednesday, October 8, 2008

ऐलान-ए-ज़ंग........

अभी तो ये ज़ंग का आगाज है,
तेरा खुदा भी आज नाराज है ,
नफरत की बुलंदी पर कोई टिक ना सका ,
कश्मीर मोहब्बत का वो साज है ।
भूल गए जिसे तुम ,
तेरा वो कल ,फ़िर आज है ,
हमारे दिलों में भी सुलगती आग है ।
कश्मीर हिमालय का सरताज है ,
और हमारी ही मोहब्बत का मोहताज है ।
चाँद और सितारे तेरे पास हैं ,
तो कश्मीर सा सूरज हमारे पास है ।
दूर से ही तू ,इससे रोशन रहेगा ,
इसको पाने की कोशिश में जल जायेगा ।
तुम करते हो नफरत
हम करते हैं मोहब्बत ।
तुम करते हो शहादत ,
समझ न पाये इसकी इबादत !
हम कहते हैं शान इसको
देते हैं सब जान अपनी ।
मर जाते हैं मिट जाते हैं ,
हो जाते हैं कुर्बान ।
तेरा खुदा - हमारा भगवान,
आज हम पर ही हैं मेहरबान ।
जिसको कहते तुम आजादी की ज़ंग ,
उसमे खून-खराबी का रंग ।
रंग जाओगे ख़ुद इसमे तुम
और उतर जायेगी जो चढी भंग ।
मुंह की खाए भूल गए तुम ,
हो जाए फ़िर ऐलान-ए-ज़ंग ।
( कारगिल युद्ध के समय लिखी गयी कविता )

ऐसा क्यूँ .....?

देखता हूँ हर दिन,कोई नया हादसा,
और होता है फिर कंही कुछ द्वंद सा।
रोज ही छप जाती है मन में
तस्वीर नयी कोई,
हंसती हैं उनमे कुछ, तो रोती हैं कोई।
पर मेरे दिल का आँगन बहुत छोटा,
काश! ये आसमान सा होता ।
नवजीवन मिलता यहाँ किसी को,
तो दम तोड़ देती है कोई ।
तस्वीर है उन मासूम चेहरों की,
जो अक्सर ही देखे जाते हैं।
हर पथ पर हर गली में ,
हर सुबह और शाम में
हर चौराहे और फुटपाथ पर,
बिखरे से मिल जाते हैं ।
क्या है इनकी कथा ?
क्या है इनकी व्यथा ?
शायद ही जान पाता है कोई ,
और उन्हें समझ पाता है कोई ,
लेकिन ऐसा क्यूँ ? ............
क्या वे अपने नही ? या ,
हम ही उनके नही ।
उत्तर के अन्वेषण में ,
इन संवादों के संप्रेषण में ,
टूटते हैं प्रश्न भी और
मिलते हैं जवाब भी ,पर
वो राह नही मिलती जो,
दिखाए नयी राह ,जो
सजाये उन टूटे सपनों को ,
अपना बनाए उनके अरमानों को ,
पर ऐसा क्यूँ ?.........
क्या कोई इनके उत्तर ढूंढ पायेगा ?
या फ़िर कोई चेहरा प्रश्न लिए ही ,
इतिहास के अनुत्तरित पन्नों में ,
दफ़न हो जायेगा हमेशा के लिए .......

Tuesday, October 7, 2008

आख़िर कब तक ..........?

आख़िर कब तक ....
और कितनी बार उठेंगी यह
निगाहें और क्यूँ उठेंगी ?
एक दूसरे की तरफ़ ।
आख़िर और कितने सवाल ,
कब तक और कितनी बार पूछेंगी ?
हर सुबह ,हर दोपहर ,हर शाम ।
एक-दूसरे को देखने की
आदत सी होती जा रही है।
शायद जवाब ना भी मिले ,
मगर यह निगाहें समझती हैं
एक -दूसरे की भाषा ....
और जवाब भी निगाहों -निगाहों में ही
मिल जाता है ,कितनी शिद्दत से
वो निगाहें आपस में बातें करती हैं ,
फिर दोनों के चहरे पर एक हलकी
मुस्कान बिखेर कर ,
एक दूसरे से जुदा हो जाती हैं ।
शायद बहुत प्यार है उनमे ,
या फिर वो हम पर
ताने देने के अंदाज में ,
हमारी बेबसी पर ,हमारे मायूस होते
खूबसूरत चेहरों को बहुत ,
कुछ कहकर चली जाती हैं ।
जब आती हैं दोबारा तो फिर वही
अनगिनत सवाल होते हैं जिनसे
हम जाने कितने दिनों से लड़ रहे हैं ।
कभी-कभी शून्य में भी ,
कितने ही सवालों के जवाब
अनायास ही मिल जाते हैं और
यह जवाब ही हमारे सवालों की
एक नयी श्रंखला दे जाते हैं ,
उनसे जूझने के लिए .....
अपने सपने को जिन्दा रखने के लिए .........
(ये निगाहें मेरी और मेरे एक अजीज दोस्त की हैं)

Monday, October 6, 2008

कैसा यह संसार है..........


कैसा यह संसार है ?
जहाँ साम्प्रदायिकता एक त्यौहार है।
यहाँ मन्दिर-मस्जिद मेले सजते ,
और सजता हर गुरद्वार है।
राम-नाम का उदघोष और अल्लाह की पुकार है,
यहाँ दो पाटों के बीच अब मरता भी करतार है ।
कैसा यह संसार है,जहाँ........... ।
कैसा भीषण ज्वार यह,
जो करता केवल लहू से प्यार है
चाहे मन्दिर टूटे ,चाहे मस्जिद टूटे,
लेकिन टूटा अब अंतर्ध्यान है
कैसे बना हुआ हैवान ,
एक इंसा को जला रहा इंसान है ।
कैसा यह संसार है ,जहाँ............. ।
कैसी है यह यज्ञ-आहुति ?
जहाँ लाशों की भरमार है ।
ना हिंदू ना मुस्लिम पर ,
यह मानव पर हुआ प्रहार है ।
अहिंसा की धरती पर,
क्यूं हिंसा का यह वार है ?
गांधी और मानवता,
आज दोनों की यह हार है ।
कैसा यह संसार है,जहाँ............. ।
साम्प्रदायिकता की इस ज्वाला में जलते ,
एक बच्चे की चित्कार है ,
मुझको भी जहाँ से प्यार है
हाँ ! मुझको भी जीने का अधिकार है ..........
( गुजरात के गोधरा काण्ड के बाद लिखी यह कविता )

एक दिन घर लौटकर आऊंगा मैं.........

एक दिन घर लौटकर आऊंगा मैं,
फिर अपनी दास्ताँ सबको सुनाऊंगा मैं।
इन आंखों में, जगती रातों ने जो सपने हैं देखे,
देख लेना एक सुबह सच कर दिखाऊंगा मैं।
हर रोज,हर पल नयी तन्हाई सी है ,
मगर मौजों की वादियाँ लेकर आऊंगा मैं।
घर से निकलता हूँ जब तो पूछते हैं सब,
फिर से कब तलक लौटकर आऊंगा मैं।
काश! मैं खुदा होता तो सब कुछ बयां करता,
कैसे यह बता दूँ कि ,किधर जाऊँगा मैं।
आज तनहा और बेबस हूँ ,मगर सच्चाई है यह,
कई दिलों की रोशनी बनकर आऊंगा मैं।
ये मशाल जो दिल में जलाई है हमने,
देखना कितने अंधेरों को मिटाऊंगा मैं।
राहे मंजिल एक दिन मुझको,मिलेगी जरूर,
हर सफर पर, इक दास्ताँ लिखकर जाऊँगा मैं।
एक दिन घर लौटकर आऊंगा मैं................ ।

चोरनी ...........

सुन लो यारों आज दिले हाल बयाँ करते हैं ।
प्यार के मारों में हम भी शुमार किया किया करते हैं ।
दिल से याद करते है जब भी ,आंखों में उतर आते हैं वो ,
सपनों में ही सही ,कभी कभी वो हमसे बात किया करते हैं ।
जिसको प्यार किया बहोत ,उसी से छुपाया भी हमने
उसको ही छोड़कर ,सबको बताया भी हमने।
क्या बताऊँ क्या हाल था और कैसी बेबसी थी ,
मेरे प्यार की उर्वशी थी ,वो मेरे दिल में बसी थी ।
बहुतों को चाहत के पैमाने पर आजमाया हमने ,
कभी अपनी चाहत तो कभी पैमाने को कम पाया हमने
मगर उसमे कुछ बात थी ,जो बहुत ख़ास थी ,
उसकी सादगी पर मरता था ,वही सादगी तो क़यामत थी ।
वह शर्म के परदे में सदा फूल सी लगती थी ,
हर सुबह खिलती थी वो हर शाम को ढलती थी ।
सुबह-शाम देखूं जब भी अपनी धड़कन बढ़ जाती थी,
रात उसकी बातों में और यादों में कट जाती थी।
पर चार दिन का खेल यह चन्द लम्हों में बीत गया ,
दिन के सपने जैसा दिल में ही टूट गया ।
दिल ने बहोत कहा ,उससे दिल की बात कह दूँ ,
एक सफर से पहले ,नए सफर की शुरुआत कर दूँ ।
पर दिल की बात दिल में रही ,जुबां पर न आयी ,
दिल की दीवारों से लड़कर ,वह आंखों में उतर आयी ।
एक बात जो सदा सच थी ,आज फिर सामने आयी ,
प्यार की दुनिया में ,मिलन से बढ़कर है जुदाई।

Saturday, October 4, 2008

मौत.......


अरमानों की मुस्कानों पर ,
गम का बादल छा जाता है ।
खुशियों का सूरज ,उगने से ,
पहले ही डूब जाता है जब ।
आंसुओं की घटायें , आंखों से ,
क्यूँ बरस आती हैं कभी ।
बेवक्त जहाँ से किसी का ,
जनाजा उठ जाता है जब ।
मनुष्य तो केवल ठगा सा ,
महसूस करता है तब ।
जिंदगी को मौत से ,
छला जाता है जब ।
हर रात में किसी बात में
उसका साया उसका साथ ।
मन को तडपाती है , वह
दुनिया से चला जाता है जब ।
फिर इतना भी क्यूँ प्यार हो ?
किसी को किसी से ।
मौत पर ही ऐतबार हो ,
केवल जिंदगी को जब ।
लेकिन ना समझ पायेगा मन ,
एक दिन बिछड़ जायेगा तन ।
छूट जायेंगे सब अपने-पराये ,
और रह जायेगा बस एक मसान ।
बस ! ऐ मन ! तू यह जान ले,
इस बात को पहचान ले ।
वहां मौत का बसेरा है ,
जहाँ है जीवन सा वन ।

जागो मीडिया जागो ........

एक मीडियाकर्मी होने के नाते ,आज मैं अपने सभी उन बंधुओं को याद दिलाना चाहता हूँ कि अब भी वक्त है .......लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ होने के नाते आप सब की ये नैतिक जिम्मेवारी बनती है कि पहले आप ख़ुद को सुधारें फिर किसी को बनाने या बिगाड़ने की बात करिएगा । आप भी भली भांति समझते होंगे कि आज की मीडिया किस तरह अंधाधुंध अपनी ही मस्त चाल में चल रहा है ,खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया। कहने को पत्रकारिता आम आदमियों की बजाय एक जिम्मेवारी भरा काम है ,लेकिन आप भी जानते होंगे ,समझते होंगे कि यह बात अब पुरानी हो चुकी है,आज की तारीख में यह व्यवसाय से ज्यादा कुछ नही । चैनल और अखबार मालिकों पर अब देश की जिम्मेदारी से ज्यादा टी आर पी और अखबार के सर्कुलेशन का बोझ है। यह बोझ किसी ना किसी रूप में संस्थान में काम करने वाले कर्मियों पर ही थोपा जाता है ,सो कर्मचारी भी अपनी रोजी -रोटी के वास्ते कैसे भी हो यह बोझ ढोता है और वह भी इस कलयुगी रंग में ख़ुद को ढाल लेता है। इसके सिवा उसके पास कोई चारा भी नही । पहले से ही अनगिनत बोझों से लदा हुआ ,वह चैनल के भीतर कमरतोड़ मेहनत करने के बाद भी अपनी कमर टूटने से नही बचा पाता । इस आपाधापी से भरी पत्रकारिता में आम आदमी की उसकी अपनी पहचान कहीं खो सी जाती है ,वह आम आदमी से अब विशेष की श्रेणी में गिना जाने लगता है ,क्यूंकि अब वह भी लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहे जाने वाले मीडिया का एक अभिन्न हिस्सा हो चुका है ,भले ही उसका ख़ुद का स्तम्भ जड़ से हिल चुका हो । अब उसने एक नए समाज में कदम रख दिया है ,भले ही यह उसका आखिरी कदम हो ,लेकिन कोई रास्ता भी तो नही बचता जिसपे चलकर वह ख़ुद के वजूद को बचा सके ।
मीडिया में कदम रखते ही कोई आम आदमी ,आम आदमी के बजाय विशेष की श्रेणी में आ जाता है और इस नए समाज के सारे गुन-दोष सीखता है मसलन खबरें लिखने के बजाय खबरें बनाना ,किसी ख़बर की तह तक जाने की कोशिश में उस ख़बर की हत्या कर देना ,ख़बर लिखने की जगह गॉसिप परोसना ,किसी की भी परवाह किए बिना कुछ भी दिखाना ,सच की जगह झूट को सजा-बजा कर लोगो के सामने रखना । ख़बर बनाने के लिये मुर्दे की कब्र भी खोदने से गुरेज न करना ,ख़बर ना होते हुए भी ख़बर बना देना और जरूरत पड़े तो दुनिया को भी तबाही का मंजर दिखा कर उनके होश फाक्ता कर देंगे । ऐसी है आज की इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ,भला हो प्रिंट मीडिया का जिसमे आज भी बहुत कुछ बाकी है ......... । पिछले लगभग आठ- दस सालों में मीडिया में जो क्रान्ति आई है ,उसके पीछे कहीं ना कहीं मोटी रकम और रुतबे का ख़ास स्थान है । यही वजह है की इस ओर कदम रखने वाला हर आदमी जल्द से जल्द अपनी तरक्की चाहता है ,इसके लिए उसे कुछ भी कीमत चुकानी पड़े । मीडिया भी राजनीति का अखाडा बन चुका है जिसमे चैनल के आकाओं से लेकर उसमे काम करने वाल पियून भी आपसी प्रतिस्पर्धा में जी रहे हैं ,या कहे आपस में लड़ रहे हैं। हर सीनियर जूनियर को काम सिखाने के बजाय ,अपने सीनियर होने का एहसास दिलाने में ज्यादा व्यस्त दिखाई पड़ता है ,काम न करने वाला काम पूरा करने वाले को गालियाँ देता नजर आता है ,हर सीनियर के पीछे दो- चार चमचों की फौज हमेशा रहती है ,हर कोई एक-दूसरे की टांग खींचने में लगा हुआ है .............ऐसे में आप यदि इन सब गुणों से संपन्न हैं तो ठीक वरना भगवान भी आपको डूबने से नही बचा सकता ।
आज मैं उन सभी मीडिया आकाओं से कुछ सवाल पूछना चाहता हूँ .......
1.क्या आप ये अभी तक तय कर पाये हैं कि चैनल पर दिखाना क्या है ?
२.क्या आपको काम करने वाले दिखते नही या आप उन्हें दूसरों की नजर से देखते हैं ?
3.क्या आपको आपके सहकर्मियों की गतिविधियों का पता रहता है ?
4.क्या आपको ये पता है कि कुछ लोग काम ना करने की बजाय राजनीति में मशगूल रहते हैं ?
5.यदि आप को ऊपर के सवालों के जवाब मालूम हैं तो फ़िर आप कोई कदम क्यूं नही उठाते ?
6.क्या आप भी टी आर पी की दौड़ में शामिल हैं ?
७.क्या आप भी ख़बरों की बजाय सनसनी में यकीन करते हैं ?
8.क्या मीडिया में आप का भी कोई माई-बाप है ?
9. क्या बिना डिग्री के भी इस मीडिया में कई लोग अच्छा कर रहे हैं ?
10. मीडिया में आने के लिए क्या कोई मानक बन पाया है ?
कहने को आप भी कह सकते हैं कि यह केवल मेरे दिल की भड़ास हो सकती है ,कुछ हद तक ये सच भी हो सकता है लेकिन ये भी सच है की मेरी तरह ही ना जाने कितने साथी इस सच्चाई से वास्ता रखते हैं। मैं अपनी बात इस उम्मीद के साथ ख़तम करता हूँ कि आने वाले दिन मीडिया के लिए एक साफ़-सुथरा भविष्य लेकर आयेंगे ।